लक्षण (चौपाई) :-
दुइ परतंत्र वाक्य मिलि जाय। रहि के भिन्न अभिन्न दिखाय॥
कथ्य अकथ्य समान लखाय। दुओ मिलवले अर्थ बुझाय॥
वाचक युत या वाचक हीन। तब निदर्शना कहें प्रवीन॥
पहिली निदर्शना अलंकार
लक्षण (चौपाई) :-
जे से शब्द जहाँ दरसाय। असम वाक्य दुइ सम बनि जाय॥
निदर्शना ऊ प्रथम कहाय। देत दीन जी ईहे राय॥
उदाहरण (दोहा) :-
नकल छात्र के रोकि के जे चाहत निज खैर।
ऊ बसि बीच समुद्र में करत मगर से बैर॥
बिनु जल सूखल भूमि पर चला सकी जे नाव।
साँच बात बतियाइ के जीती उहे चुनाव॥
नीचे खटमल दल बसे ऊपर मच्छर यूथ।
बीचे सूति सकी उहे जे खैरा के खूथ॥
मालाकार सवैया :-
बड़की मधुमाछी के छत्ता छुई बिलिया में जे बिच्छी का बॉंहिं बढ़ाई।
अथवा मथवा पर साँप का जे हथवा धरि साँप के ठोकि जगाई॥
अथवा सम्पाती समान जे जोश में सूरज का निगिचा चलि जाई।
बनि के उहे गार्ड परीक्षा में आइ के छात्रन के सही राह चलाई॥
दूसरी निदर्शना
लक्षण (हरिगीतिका) :-
उपमेय में उपमान के गुण साटि दीहल जात बा।
त निदर्शना के भे दूसरका सटीक सुहात बा॥
उदाहरण (दोहा) :-
रुपया दे के बस्तु कुछ बाटे जहाँ किनात।
चौवन्नी के मान तब रुपया में आ जात॥
फलमय तरु के डाढि़ जब नीचे बा नयि जात।
गुणी मनुज के नम्रता ओकरा में दरसात॥
समधी साथ बरात का बेटिहा का घर जात।
अहमिति थानेदार के ओकरा में बढि़यात॥
तारा चमकत गगन में पइ अन्हरिया राति।
दीप मालिका के छटा नभ में तब छा जाति॥
करत बुढ़ापा मनुज के निपट शिथिल जब गात।
शिशुपन के असमर्थता बृद्धन में आ जात॥
वेष बदलुवा के गुरू गिरगिट हवे देखात।
बात बदलुवा के गुरू लौकत पीपर पात॥
तीसरी निदर्शना
लक्षण (हरिगीतिका) :-
उपमान में उपमेय के गुन साटि दीहल जात बा।
त निदर्शना के भेद उहवाँ तीसरा दरसात बा।
उदाहरण (सवैया) :-
मिथिला पुर में भृगुनाथ के भैल पराजय तऽ उहाँ लूटल गैले।
बल विक्रम पाइ के राम जी आइ के लंका में रावन के बध कैले।
जेतना रहे कोप सहोरि बटोरि के लक्ष्मण जी अपना लगे धैले।
अहि निष्ठुरता पवले गति गोड़ के पाइ के पौन प्रसन्न परैले॥
धनु बान कुठार के लूटि नया हथियार बना बम नाम दियाइल।
बिनु धूप के भूमि बनायवे बदे उनका मन में प्रण जौन नधाइल।
प्रण लूटि के ऊहे नया जनतंत्र का नाम के शासन एक रचाइल।
तप त्याग के छूवल ना केहुवे त विनोबा का पास दुओ चलि आइल॥
फूलन जेल में गैली त तीनि गो बस्तु शरीर से बा उतराइल।
देह का रंग से छात्र नकल्चिन के मनवाँ अति गाढ़ रंगाइल।
लूट के जौन प्रवृत्ति रहे सब आफिस का अमलामें समाइल।
माथ के बार कटावे के फैशन पाइ के हिप्पी सभे अगराइल॥
श्री राम का राज्य के आस महातमा जी अपना मनवाँ में बसौले।
सहिष्णु शील दुओ एक सज्जन पा के बिहार के रत्न कहौले।
श्री राम में आस्तिकता जेतना ऊ सब मालवी जी अपनौले।
निर्भीकता आ छल हीनता जीन रहे ऊ जवाहर लाल जी पौले॥
चौथी निदर्शना
लक्षण (दोहा) :-
सीख देत जब आन के केहु के उत्तम चाल।
चौथी तहाँ निदर्शना मानत दीन रसाल॥
उदाहरण (दोहा) :-
मेघ बरिसि के देत बा पर उपकार सिखाय।
हरा भरा करि के जगत अपने जात बिलाय॥
आपन गला कटाइ के ताड़ी देत खजूर।
सिखवत दान क्रिया हवे सब का लिए जरुर॥
कुण्डलिया :-
निज तन बाँस कटाइ के खण्डे खण्ड चिरात।
गह बिहीन लोगन जदे घर बाटे बनि जात।
घर बाटे बनि जात लगत ना ईंटा गारा।
लाठी बनि के बुद्ध लोग के बनत सहारा।
शव के ढोवत और कहत कि सुन्दर जीवन।
होत तबे जब लगत रहे पर हित में निज तन॥
सवैया:-
मुरुगी मछरी बकरी निज सन्तनि देइ के मानव भूखि हरेले।
अपनो तन अन्त में दे कहियो पेटवा उनके भरपूर भरेले।
मोह के छोह के छोडि़ के दान में ना तनिको पगु पीछे धरेले।
महिमा बड़ी दान के बा सबके इहे तीनूँ सदा उपदेश करेले॥
धरती अपना उपरा फल फूल अनाज अनेक सदा उपजावे।
बहूमूल्य अनेक प्रकार के धातु सदा अपना डर में जे छिपावे।
बिनु दाम लिये सब देत मनुष्य के आ उनके सुख साज सजावे।
धरनी अपना करनी से सदा सब लोग के दानी बने के सिखावे।
सब जीव के जन्तु के वृक्ष पहाड़ के बोझ उठावे अहार जुटावे।
मुवला पर शव केहु पूछन ना निज माटी में ओकर माटी मिलावे।
सूरज भी निज देहि के दू दफे लाल बना दुनियाँ के देखावे।
और बतावे कि न्याय तथा समता सूख सम्पति लालिये लावे॥
पाँचवी निदर्शना
लक्षण (दोहा) :-
बाउर करनी के सदा बाउर फल मिलि जात।
निदर्शना जे पाँचवी इहे बतावति बात॥
वीर :- निज कुकर्म के फल दिखला के सीख आन के जहाँ दियात।
भेद पाँचवाँ निदर्शना के उहवाँ बाटे मानल जात॥
उदाहरण (चौपई) :-
हँसुवा खुर्पी और कुदार। टाँगी पसँहुल और कुठार॥
बँसुला बँसुली हर के फार। औरो जे दोसर हथियार॥
दुसरा के काटे के काम। करें सदा सब आठो याम॥
एसे इनके मुँह झोंकरात। आ हथउर से पीटल जात॥
बाउर फल दे बाउर कार। इहे सिखावत सब हथियार॥
टाड़ा तरु के डार समाय। काटि काटि के देत सुखाय॥
खाय मोटात होत तइयार। कठ फोड़वा के बनत अहार॥
दुसरा के जे करत जियान। ओहू के केहु हरत परान॥
ईहे बा जग के व्यवहार। टाड़ा कहत पुकार-पुकार॥
दुइ कन्या के रहे जरुर। लेकिन बल का मद में चूर॥
काशिराज के कन्या तीन। ले अइले बल पूर्वक छीन॥
एगो कन्या भइल बेकार। ना केहु ओकर सुनल पुकार॥
परशुराम सुनले फरियाद। चलले स्वयं दियावे दाद॥
सोचले मन में शिष्य हमार। कहवि तवन करिहें स्वीकार॥
लेकिन घटना घटल विरुद्ध। उहवाँ भइल भयानक युद्ध॥
गुरूऔर चेला बरियार। ना केहु से केहु मानल हार॥
कन्या रहि आजन्म कुँवार। भई शिखण्डरी के अवतार॥
द्रुपद सुताके होत उधार। देखले पूरा आँखि पसार॥
तवनों पर रहि गइले मौन। धइले धर्म नजाने कौन॥
जहिया गइले भीष्म बुढ़ाय। अपना करनी पर पछताय॥
प्रायश्चित हित एक उपाय। मन में सो चियुद्ध में जाय॥
तीरन से निज तन गँथवाय। रथ पर से गिरले भहराय॥
तीरन पर तन गइल टँगाय। भूमि कबें ना तनिक छुवाय॥
सुगति हेतु ईहे उपचार। करते गइल मास दुइ चार॥
क्रिया कर्म अथवा असनान। भइल न जाने कवने डान॥
भीष्म जीवनी देत बताय। होश बुढ़ापा में आ जाय॥
करि के खेत तेयार किसान। बोवत ओहि में गोहूँ धान॥
लेकिन घास फूस अभिशाप। जामत आके अपने आप॥
तब किसान खर फूस उखारि। देत खेत से दूर निकारि॥
घास फूल जब छोड़त खेत। सब के बाटे शिक्षा देत॥
जे केहु बिना बुलावल जाय। ओकरा खातिर इहे सजाय॥
दोहा :- जे निज गृह में शरण दे ओकरे करी जियान।
मूस सिखावत दुष्ट के आपन देत प्रमान॥
सिखावत सरिता कुटिल गति काटि विशाल कगार।
रही कुटिल का पास जे परी विपत्ति मझधार॥
सार :- नहुष सिखावे जे केहु अपना मन में पाप बसायी।
इन्द्रो रही त एसे का ऊ नीच योनि में जायी॥
कुरुबंशिन के नाश करे में कृष्ण सहायक भैले।
तब यदुबंशी आपु सही में लडि़ कटि के मरि गैले॥
पर कुल के जे नाश करेला ओकरो कुल बिनसाला।
यदुबंशिन के नाश इहे सिख सब के देत बुझाला॥
जेकरा भीतर दम ना होला ऊहे सदा पिटाला।
केतनों ऊँचा स्वर से चिघरे ना केहु तनिक दयाला॥
दुसरा के दुख दे के मानुख अपने मोद मनावे।
जग के ई व्यवहार सनातन ढोल बाजि बतलावे॥
इसकूटर इस्टार्ट होत तब कई लात जब खाला।
जँगर चोर लोगन के ईहे बात सिखावत जाला॥
घर में बइठल रहिहऽ तब तक बाहर कबे न अइहきऽ
जब तक हुमचि हुमचि मालिक के कई लात ना खइहऽ॥
मन्थरा केकयी के बहका के अवध उजार बनौली।
मुँह फूटल आ कूबर टूटल दुइ इनाम ऊ पौली॥
निज करनी द्वारा कहली जे दोसरा के सन्ताई।
ऊ बाउर फल पाई ओकर हो ना सकी भलाई॥
निज जीवन से देति मंथरा जग के सीख उदार।
ओकर दुर्गति होत करत जे दोसरा के अपकार॥
सवैया :-
गुरु नारि तथा मुनि गौतम नारि का साथ में चन्द्रमा पाप कमैले।
करिखा मुहवाँ में पोताइल और निहारल नीच निगाह से गैले।
तब से कवनों तिथि में उगले कवनों में त लाज का मारे लुकैले।
बतलावत चन्द्र कि पाप प्रभाव से राहुवो के उहे भोजन भैले॥
केकई के मनावे बदे पिता राम के दूगो सदोष महाप्रण कैले।
जान से मारे आ देश निकारे बदे केहुवे के ऊ तत्पर भैले।
फल पाप के दूओ स्वयं पवले दोसरा बदे जे मन में निज धैले।
प्रिय पुत्र के देश से दूर निकालि के दीन दुखी बनि के मरि गैले॥
ताटंक :-
दाँत अन्न के कण चुराइ के अपना लगे छिपावेला।
तब ऊ अन्न सड़े लागेला आ बदबू फइलावेला।
गन्दा दाँत बसा के एगो तथ्य मुख्य बतलावेला।
चोरी कइला से बदनामी बहुत जियादे छावेला।
लोग सुर्तिहा सुर्ती पहिले टूक टूक टुकियावेला।
कटला पर चूना गिराइ के लठि के खूब मिलावेला।
तब कई तमाचा पीटि-पाटि लीले खातिर मुँह बावेला।
कुछ दिन में तब सुर्ती मुँह के बदबू खान बनावेला।
आ ऊ दाँतन के जड़ खनि के जल्दी से भहरावेला।
आ जीवन निज दास बना के भिखियो कबे मँगावेला।
सुर्ती के दुख दिहला के फल दुखद सुर्तिहा पावेला॥